Posts tagged “Ashish Anand Arya “Ichchhit”” (Page 3)

वोट की चोट का दर्द

मूल रूप से किसी भी देश का विकास और उसकी गतिशीलता देश में उपलब्ध संसाधन और उनके संदोहन पर निर्भर करते हैं। भारतवर्ष के भीतर यह गतिविधि प्राथमिक तौर पर भारतीय सरकार के हिस्से आती है।

पारिस्थितिकी की दृष्टि से भारतवर्ष विकास के मानकों पर खरा उतरने के लिए एक अद्वितीय देश है। परंतु भारत की व्यापक रूप से विश्व स्तर पर जो स्थिति है, उसका उत्तरदायित्व किसके सर मढ़ा जाना चाहिए, भारतीय होने के नाते हम बेहतर ढंग से बखान सकते हैं।

मेरी व्यक्तिगत विचारधारा में देश की सबसे ज्वलन्त समस्या देश की जनसंख्या ही इकलौती समस्या है,

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!! शक्ति पुँज & आचार्य अदग !! (Part 2)

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पिछले खण्ड से आगे… PART-2 :

आचार्य अदग के हिसाब से उनकी उम्र बूढ़ा कहे जाने वाले पड़ाव पर पहुँच चुकी थी। अब तक ब्रह्मचर्य-जीवन का पालन करने वाले आचार्य अदग के नज़दीक कोई भी ऐसा इंसान न था, जिससे वो अपने मन की बातें कह सकें। मन के अन्दर ही अन्दर उथल-पुथल मचाते विचारों के इस लगातार दबाव ने जीवन के आरम्भ से ही शान्तिप्रिय रहे आचार्य के व्यवहार को अब सहसा ही बहुत कर्कश बना दिया था। उस कर्कशता की वजह से ही अब लोग उसके करीब आने से भी घबराने लगे थे। परन्तु उस आचार्य मन के भीतर उस गुस्सैल मनोदशा के बावजूद कुछ और ही ध्येय थे।

इस समय आचार्य अदग के विचार बहुत दूर की बात सोच रहे थे। जीवन के इस अधेड़ दर्शक ने मन ही मन यह निश्चय कर लिया था कि वो इसी कठोर स्वभाव के साथ शेष जीवन का यापन करेगा। उस कठोर अवस्था में जो कोई भी जिज्ञासु अपने प्रयासों से उन्हें सन्तुष्ट करने का प्रयास करने जा रहा था,

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!! शक्ति-पुँज & आचार्य अदग !!

!! शक्ति-पुँज & आचार्य अदग !!

जीवन, वह एक बड़ा सत्य है, जिसने पृथ्वी को आज तक इतने विशाल ब्रह्मांड के हजारों लाखों ग्रहों के बीच बिल्कुल अलग ही स्थापित करके रखा है। पृथ्वी पर जीवन के न जाने कितने-कितने प्रकार हैं। पेड़-पौधे, कवक, पशु-पक्षी, मछली, उभयचर, कीटाणु, विषाणु, कोशिका और इस तरह से एक-एक जोड़ते-जोड़ते और भी न जाने क्या-क्या! पृथ्वी पर मौजूद जीवन के इन विभिन्न रूप-रंगों में से ही एक,

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बस खयाल रखना अपना

तन मिट्टी हुआ
दिल चिट्ठी हुआ
कैसे अब लौट के हो जाना?

तुम ढेर बहुत हो
यादों में,
तुम पल-पल
दिल की साँसों में,
पर साँसों को इन
अब मुनासिब कैसे हो
तुम तक पहुँचाना?

दरवाजे पर
ये टिकी निगाहें
सवालों में
बस बहती जायें
कि किसकी गोद में खेलेगा
अब कान्हा?
किसके काँधे चढ़
मुनिया बोलेगी अब पापा?

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माता-पिता के चरणों में…

सेवा का दूजा नाम नहीं
भगवान मेरे राम-रहीम!
पूजा मैं इंसानी करता हूँ
माँ-बाबा वरदान.. असीम!

बेहतर दूजा सम्मान नहीं
मात-पितु आशीष अभीष्ट!

आज ढलते नगमे गहरे हैं
जीवन न कल-कल ठहरे है
नियम सब बड़े इकहरे हैं
सफल आशीष के पहरे हैं!

बेहतर दूजा सम्मान नहीं
मात-पितु आशीष अभीष्ट!

मनुज-धर्म सनातन मिहिर
भक्ति-भाव मिटाये तिमिर
चरण-वंदना सर्वोपरि सशक्त
बैकुण्ठ इनमें बसे गहरे हैं!

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ऐसे हुए हम…

कुछ कदम और…
तुम्हें कुछ और पाना है,
कि ये ज़िंदगी तो…
बस तुम्हें करीब
और करीब लाने का बहाना है !!

कि ये जो मिली हैं साँसे
तो भरते जा रहे हैं दम उनका…
कि हर दम का
सिर्फ़ और सिर्फ़ एक ही मकसद…
कि तुमको हर साँस मे गहरा…
और गहरा बसाना है !!

नहीं इस ज़िंदगी का
अब कोई और फसाना है,

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!! SOLDIER : An Answered QUESTION !!

 

Who am I?
What is the purpose of me?
What are those features
Whom everyone state
very special, very specific…
For every case of mine!
Such same and many more specifications,
As are really special
For all the theories of entity,
They itself make me a question…
A general and Great Question,
which deserves the answers,
Also these are questions,

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राधेनगर की चिड़िया

 

राधेनगर गांव के बिल्कुल पड़ोस में एक जंगल था। जंगल में छोटे-बड़े कई तरह के जानवर और पक्षी रहते थे। उन ढेर सारे जानवरों में एक चिड़िया भी थी, जो पेड़ पर घोसला बनाकर रहती थी।

रोज सुबह-सुबह वो चिड़िया अपने घोसले से उड़कर जाती थी। फ़िर सब जगह घूम-घूमकर, हर जगह से इकट्ठा करके अपने बच्चों के लिए खूब सारा खाना लेकर आती थी। उस चिड़िया के कई सारे बच्चे थे जो उसी घोसले में रहते थे। अपने प्यारे बच्चों के लिए लाया हुआ सारा खाना चिड़िया वहीं घोसले में छोड़ देती और बच्चों से बोलती कि जिसको जो पसंद आए,

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बेईमान इंसान… या थकान…

ये मेरे दिन की थकान
कितनी बार
इतनी बेईमान होती है…
कि होती तो मेरी है
पर अपने ईमान पर
बड़े ही चुपचाप
ये खुद को ढोती है,
मैं तो कतई नहीं चाहता
मेरे इस वक्त को खोना..
मुझे कतई पसंद नहीं
इस नींद भर देने वाली
थकान के आगोश में होना,
पर यह शायद खुद के
मुझमें होने से
उतनी परेशान होती है
जितनी मेरी परेशानी से
ये दुःख को
यूँ खुद पर ढोती है
और फिर चुपके से
मुझे बिना कुछ बताए
मुझे लपेट अपने दामन में
नींद से सुलह कर
जी भर कर मैं बनकर सोती है,

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छोटी छिपकली

थक गया इतना आज
कि लौटते ही घर
सीधा जमीन पर बिछा चटाई
लेट गया उस पर
गहरे सुकून भरे एक आराम के लिए
और इतनी ही देर में
एक बार फिर से आ गई वो…
वही छोटी सी छिपकली
पर अब तो वो
बिल्कुल भी छोटी नहीं
जितनी छोटी वो मिली थी मुझे
कुछ दिन पहले!

याद है बड़ी अच्छी तरह
कि उस दिन भी
यूँ ही बिल्कुल थकान से चूर-चूर
आकर लेट गया था
फर्श पर बिछा चटाई
और नज़दीक ही रखे
फ़्रिज के नीचे से निकलकर
आयी थी वो…

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