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- By Ashish Anand Arya "Ichchhit"
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- Poetry
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घड़ी में
वो शाम की सुइयाँ दिखते ही
ये सीना
रोज़ ही फिर तैयार हो जाता है..
कि अब बस बंद होगा ऑफिस
और कदम फिर कौंधेंगे ताबड़तोड़
सीधे घर की ओर,
और घर पहुंचते ही
आकर सीने से चिपट जाएगी
वो मेरी लाडली,
पर खयाल ये एक
मन में पनपते ही
उमड़ उठते हैं
इस एक खयाल को
मानो जैसे लूटते-कचोटते
ये कितने सारे-सारे-सारे बवाल
कि आया है जब से ये कोरोना वाला काल
हर पल ही ज़िन्दगी
बनती जा रही बड़े-बड़े सवाल
कि रोटी और नौकरी
दोनों ही जीवन को अति ज़रूरी हैं
और किसी एक से भी बना पाना दूरी
असंभव मजबूरी है
पर ये नौकरी और रोटी वाले सवाल पर
जब भी लौटकर आते
घर से बाहर निकले ये कदम
साथ होते डर भरे सवाल
कि सबकुछ तो ठीक ही है न फिलहाल?